प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- प्राचीन काल में शूद्रों की स्थिति निर्धारित कीजिए।
उत्तर-
प्राचीन काल में शूद्रों का कर्तव्य सेवा करना था। मनु ने शूद्र की सेवावृत्ति पर बहुत अधिक बल दिया था। उनके अनुसार ईश्वर की ओर से शूद्र का एकमात्र धर्म ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णों की सेवा करना था। परन्तु याज्ञवल्क्य ने उदार दृष्टिकोण रखा और शूद्र को व्यापारी कृषक और कारीगर होने की अनुमति दी है। शूद्रों ने इसका लाभ उठाया और कुछ शूद्रों ने सैनिक वृत्ति को भी अपनाया। कुछ तो सेना के पदाधिकारी बनने में सफल रहे। गुप्त राजा मौर्यों की भाँति कड़ा राजकीय नियन्त्रण नहीं रख सके थे जिसके फलस्वरूप शूद्रों पर राजनीतिक दबाव कम हो गया। उनकी अवस्था पहले की अपेक्षा अधिक सन्तोषजनक रही और शूद्रों के राजा होने का प्रमाण भी मिलता है। ह्वेनसांग ने लिखा है मनिपुर का राजा शूद्र था उसने सिन्ध में सातवीं शताब्दी में शूद्र राजाओं का उल्लेख किया है। गुप्तकाल के धर्मशास्त्रों में स्पष्ट रूप से शूद्रों को अस्पृश्यों और दासों से अलग बताया है। पिछड़ी हुई वन जातियों के वर्णव्यवस्था में शामिल होने से शूद्रों की अस्पृश्यों और दासों से अलग बताया है। पिछड़ी हुई वन जातियों के वर्ण व्यवस्था में शामिल होने से शूद्रों और अस्पृश्यों की संख्या में वृद्धि हुई थी।
वैश्य लोग जब कृषि से विमुख होने लगे और व्यापार एवं वाणिज्य में रुचि लेने लगे तब शूद्र वर्ण ने कृषि कार्य को अपना लिया। सातवीं शताब्दी ईस्वी के पूर्वार्ध में ह्वेनसांग ने शूद्रों का खेतिहरों के वर्ग के रूप में उल्लेख किया है। नृसिंह पुराण में कृषि को शूद्रों का धर्म बताया गया है। गुप्त काल तक यह परिवर्तन स्पष्ट रूप से हो चुका था और करदायी किसानों के रूप में उनका बार-बार उल्लेख मिलता है। अतः शूद्रों की आर्थिक दशा में सुधार हुआ। परन्तु गुप्त काल में भी अन्य वर्णों की सेवा शूद्रों का धर्म बताया गया है। गुप्तकाल तक यह परिवर्तन अवश्य हो चुका था। शांतिपूर्व में एक राजा यह दावा करता है कि उसके राज्य में शूद्र तीनों वर्णों की सेवा का परिचर्या करते थे। भृत्यों पर घरेलू चाकरों के संबंध में कामसूत्र में कहा गया है कि उन्हें खाना-पीना देने के अतिरिक्त मासिक या वार्षिक वेतन मिलना चाहिए। शांतिपर्व में इस बात पर बल दिया गया है कि शूद्र सेवकों का भरण-पोषण करना तीनों वर्णों का कर्त्तव्य है। मनु के समान ही शांतिपर्व में कहा गया है कि द्विज अपने सेवक को पुराना छाता, पगड़ी, बिस्तर व आसन, जूते और पंखे तथा फटे-पुराने कपड़े दे। परन्तु प्राचीन काल का यह मत कि शूद्रों को ब्राह्मण के दास तथा नौकर रहने में सन्तोष करना चाहिए न तो सैद्धान्तिक रूप में स्वीकार किया गया है और न ही व्यावहारिक था।
गुप्तकाल में शिल्प वर्ग शूद्रों कि सामान्य कर्त्तव्य में आ गया था। वायु पुराण के अनुसार उसके दो प्रमुख कर्त्तव्य थे शिल्प और भ्रत्ति। अमरकोश में शिल्पियों की सूची में शूद्र भी थे।
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